पटना।

बिहार में जमीन से जुड़ा मामला अब सिर्फ सरकारी फाइलों या कोर्ट-कचहरी तक सीमित नहीं रहा। यह मुद्दा सड़कों से निकलकर मोबाइल स्क्रीन तक आ चुका है। फेसबुक, एक्स, यूट्यूब और व्हाट्सएप पर रोज़ाना ऐसे अनुभव सामने आ रहे हैं, जिनमें आम लोग खुलकर कह रहे हैं कि अंचल कार्यालय उनके लिए न्याय का नहीं, बल्कि शोषण का केंद्र बन चुके हैं। जमीन का रसीद कटवाना हो या दाखिल-खारिज, परिमार्जन हो या खाता-प्लॉट सुधार—हर कदम पर रिश्वत की दीवार खड़ी बताई जा रही है।
लोगों का आरोप है कि कई जगह जानबूझकर साफ जमीन को विवादित दिखाया जाता है, फाइलें उलझाई जाती हैं और फिर मामला अदालत की ओर धकेल दिया जाता है। इस पूरे खेल में दलाल, भूमाफिया और कुछ भ्रष्ट अधिकारी फायदा उठाते हैं, जबकि आम आदमी सालों तक दर-दर भटकता रहता है। सबसे गंभीर आरोप यह है कि राजस्व कार्यालयों में अधिकारी न समय पर मिलते हैं, न सीधे बात करते हैं—हर रास्ता दलालों से होकर गुजरता है और हर काम की एक तय “कीमत” है।
इसी पृष्ठभूमि में उप-मुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा का सख्त रुख चर्चा का केंद्र बन गया है। पटना, मुजफ्फरपुर और पूर्णिया में हुए उनके ‘जन संवाद’ कार्यक्रमों के वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो रहे हैं। मंच से अधिकारियों को दी गई उनकी चेतावनियों को जनता “देर से सही, लेकिन सही शुरुआत” मान रही है। लोगों का कहना है कि पहली बार किसी बड़े पद पर बैठे नेता ने जमीन से जुड़े भ्रष्टाचार पर सीधे सवाल खड़े किए हैं।
लेकिन यह सख्ती प्रशासनिक गलियारों में टकराव का कारण भी बन गई है। बिहार राजस्व सेवा संघ ने इसे प्रशासनिक मर्यादाओं के खिलाफ बताते हुए मुख्यमंत्री तक पत्र पहुंचाया है। संघ का कहना है कि सार्वजनिक मंचों पर अधिकारियों को फटकारना, ‘खड़े-खड़े सस्पेंड’ जैसी भाषा का इस्तेमाल और ऑन-द-स्पॉट फैसले संवैधानिक प्रक्रियाओं के अनुरूप नहीं हैं। उनका तर्क है कि दशकों पुरानी व्यवस्था की खामियों का सारा ठीकरा मौजूदा अधिकारियों पर फोड़ना गलत है।
वहीं जनता का सवाल सीधा है—अगर सिस्टम इतना पारदर्शी है, तो जमीन से जुड़े कामों में इतना डर, देरी और भ्रष्टाचार क्यों? लोग अब सिर्फ निलंबन नहीं, बल्कि संपत्ति की जांच और उदाहरण बनने वाली सख्त कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। बिहार में जमीन का यह संकट अब प्रशासन बनाम जनता की बहस नहीं, बल्कि भरोसे की आखिरी परीक्षा बन चुका है।

ब्यूरो रिपोर्ट