पटना।

भारत में स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत जब भी याद की जाती है, तो सबसे पहले नाम आता है उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नगवा गांव के वीर सपूत मंगल पांडेय का। उन्होंने 1857 में वह चिंगारी सुलगाई, जिसने ब्रिटिश शासन की जड़ों को हिलाकर रख दिया। कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी की खबर से क्षुब्ध होकर उन्होंने न सिर्फ इनका विरोध किया, बल्कि अंग्रेज अफसरों पर हमला कर पहला सशस्त्र विद्रोह छेड़ दिया।

मंगल पांडेय का जन्म 30 जनवरी 1831 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन से ही धर्म और देश के प्रति गहरी आस्था रखने वाले मंगल ने महज 22 साल की उम्र में ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज जॉइन की। उस समय सेना में सिपाहियों को अपनी धार्मिक पहचान के अनुसार जीवन जीने की छूट थी, लेकिन धीरे-धीरे अंग्रेजों ने ईसाईकरण की साजिशें रचनी शुरू कर दी थीं। जब सैनिकों को ऐसे कारतूस दिए गए जिन्हें दांत से खोलना होता था और जिनमें चर्बी लगी होती थी, तो यह मामला धार्मिक अस्मिता से जुड़ गया।

29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी में मंगल पांडेय ने अंग्रेज अफसरों बाफ और ह्यूसन को मौत के घाट उतार दिया और परेड ग्राउंड में खुलेआम विद्रोह का ऐलान कर दिया। उन्होंने साथी सिपाहियों को अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया। हालांकि जल्द ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और सैनिक अदालत में पेश किया गया, जहां उन्होंने गर्व से कहा, “मैंने जो किया, सोच-समझकर राष्ट्र और धर्म की रक्षा के लिए किया।” इसके बाद 8 अप्रैल 1857 की सुबह 5:30 बजे उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।

उनकी शहादत ने पूरे देश में क्रांति की लहर फैला दी। अंग्रेजों को उम्मीद थी कि फांसी से डर का माहौल बनेगा, लेकिन उल्टा असर हुआ—बगावत की आग देश के कोने-कोने में फैल गई। बलिया के नगवा गांव को भी इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। अंग्रेजों ने गांव के लोगों पर जुल्म ढाए, जिससे कई परिवारों को पलायन कर जाना पड़ा। ये लोग जनपद के अन्य गांवों व आसपास के जिलों में जाकर बस गए, लेकिन अपने साथ मंगल पांडेय की गौरवगाथा को जीवित रखा।

आज मंगल पांडेय न सिर्फ आजादी की पहली चिंगारी के रूप में याद किए जाते हैं, बल्कि वे उस हिम्मत और बलिदान का प्रतीक हैं, जिसने करोड़ों भारतीयों को जागरूक किया। उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया गया, और उनकी फांसी का ऑर्डर आज भी जबलपुर हाईकोर्ट म्यूजियम में सुरक्षित है। 8 अप्रैल को हर साल उनकी शहादत को श्रद्धांजलि देने के लिए देशभर में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। सच ही कहा गया है—”मिटे ना जो मिटाने से कहानी उसको कहते हैं, वतन के काम जो आए जवानी उसको कहते हैं।”

ब्यूरो रिपोर्ट