पटना।

भारतीय रंगमंच की समृद्ध परंपरा में एक और महत्वपूर्ण अध्याय जुड़ चुका है। प्रतिष्ठित लेखक जावेद सिद्दीकी द्वारा लिखित और सलीम आरिफ द्वारा निर्देशित एकल नाटक “गुडंबा”, दर्शकों के दिलों को छू रहा है। इस नाटक में लुबना सलीम ने अपने संजीदा अभिनय से एक साधारण महिला की असाधारण यात्रा को जीवंत कर दिया है।

एक महिला की संघर्ष और आत्म-खोज की कहानी
“गुडंबा” की कहानी अमीना नामक एक महत्वाकांक्षी महिला के इर्द-गिर्द घूमती है, जो शादी के बाद खुद को एक संयुक्त परिवार की जटिलताओं में उलझा पाती है। समाज की रूढ़ियों के बीच अपने सपनों और पारिवारिक अपेक्षाओं के संघर्ष को आत्म-हीन हास्य और लचीलेपन के साथ पेश करते हुए, यह नाटक महिलाओं की बदलती भूमिकाओं पर एक गहरा सामाजिक संदेश देता है।

गुडंबा—महज एक व्यंजन नहीं, बल्कि जीवन का प्रतीक
नाटक का शीर्षक “गुडंबा” जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों का प्रतीक है। कच्चे आम और गुड़ से बनने वाली इस पारंपरिक मिठास की तरह ही, अमीना का जीवन भी सुख-दुख, संघर्ष और सफलता के अनूठे मिश्रण से भरा है।

लुबना सलीम की शानदार प्रस्तुति
लुबना सलीम, जो भारतीय रंगमंच, फिल्म और टेलीविजन की जानी-मानी हस्ती हैं, ने 1,000 से अधिक स्टेज शो किए हैं और कई पुरस्कार जीते हैं। “गुडंबा” में उनका प्रदर्शन न केवल उनकी अद्भुत अभिनय क्षमता को दर्शाता है, बल्कि दर्शकों को पूरी तरह से भावनात्मक रूप से जोड़ता है। जश्न-ए-रेख्ता और रवींद्र भवन जैसे प्रतिष्ठित मंचों पर उनकी प्रस्तुति को भरपूर सराहना मिली।

ESSAY थिएटर ग्रुप की अनूठी प्रस्तुति
थिएटर ग्रुप ESSAY, जिसे लुबना सलीम ने अपने पिता जावेद सिद्दीकी और पति सलीम आरिफ के साथ मिलकर स्थापित किया, हमेशा से गुणवत्ता और गहराई वाले नाटकों के लिए जाना जाता है। “गुडंबा” इसी परंपरा का एक बेहतरीन उदाहरण है, जो सामाजिक विषयों की पड़ताल करता है और दर्शकों को सोचने पर मजबूर करता है।

रंगमंच की प्रासंगिकता और सामाजिक संदेश
“गुडंबा” न केवल एक सशक्त नाटक है, बल्कि यह इस बात का प्रमाण भी है कि रंगमंच आज भी समाज की सोच को बदलने का दमखम रखता है। यह नाटक उन तमाम महिलाओं की आवाज़ बनता है, जो पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच अपने अस्तित्व और सपनों की तलाश कर रही हैं।

“गुडंबा” – यह सिर्फ एक नाटक नहीं, बल्कि हर स्त्री की अनकही कहानी है।

ब्यूरो रिपोर्ट